हाल ही में अफगानिस्तान में अमेरिकी शांति वार्ताकार जिल्मे खलीलजाद ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान से मुलाकात की। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के साथ हुई बैठक के मायने निकाले जा रहे हैं कि अमेरिका जल्द ही तालिबान के साथ शांति वार्ता शुरू करने का इच्छुक है और इसके लिए जमीन तैयार की जा रही है। वहीं वार्ता से पहले ही अफगान सरकार ने ऐसा पासा फैंका है कि तालिबान होश उड़ गए हैं।
अमेरिकी सैनिकों की संख्या में कटौती
तकरीबन दो महीने पहले काबुल स्थित अमेरिकी दूतावास पर हुए आत्मघाती हमले के बाद राष्ट्रपति ट्रंप ने आखिरी वक्त पर शांति वार्ता रद्द का फैसला किया था। वहीं तालिबान के साथ शांति वार्ता फिर से शुरू करने से पहले ही अमेरिका ने अफगानिस्तान में तैनात सैनिकों की संख्या में भी कमी करना शुरू कर दिया है। अफगानिस्तान में मौजूद टॉप अमेरिकी कमांडर जनरल ऑस्टिन स्कॉट मिलर ने माना है कि अफगानिस्तान में तैनात अमेरिकी सैनिकों की संख्या में धीरे-धीरे कटौती की जा रही है और अभी तक दो हजार सैनिकों को वापस भेजा जा चुका है। जिसके बाद वहां तैनात अमेरिकी सैनिकों की संख्या घटकर तकरीबन 12 हजार ही रह गई है।
मास्को से हुई शुरुआत
इससे पहले 20 अक्टूबर को अमेरिकी रक्षा सचिव मार्क एस्पर अफगान दौरे पर पहुंचे थे और अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी और वहां तैनात अमेरिकी अधिकारियों से भी मुलाकात की। हालांकि एस्पर ने खंडन करते हुए कहा कि उत्तरपूर्वी सीरिया की तरह अमेरिकी सेना अफगानिस्तान से भी जाने की तैयारी कर रही है। अफगान शांति वार्ता को फिर से पटरी पर लाने के लिए प्रमुख वार्ताकार जिल्मे खलीलजाद 25 अक्टूबर को मास्को को भी पहुंचे थे, जहां उन्होंने रूस, चीन और पाकिस्तान के अधिकारियों से वार्ता बहाली को लेकर चर्चा की। वहीं चीन अगले महीने तालिबान और अफगानिस्तान के अधिकारियों के बातचीत शुरू करने की तैयारी कर रहा है।
अफगान सरकार ने किया सीजफायर का एलान
वार्ता के मद्देनजर अफगान सरकार ने भी तालिबान के साथ एक महीने के लिये युद्धविराम का एलान किया है, साथ ही तालिबान से भी ऐसा ही करने की उम्मीद जताई है। तालिबान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हमदुल्लाह मोहिब का कहना है कि तालिबान भी सीजफायर का एलान करके यह साबित करने की कोशिश करे कि उसका अपने कमांडर्स पर पूरा नियंत्रण है। उन्होनें कहा कि अफगान सरकार ने सात सूत्रीय शांति समझौता तैयार किया है, जिसमें अमेरिका, नाटो, तालिबान और पाकिस्तान के साथ भी वार्ता की जएगी।
एनएसए ने खासतौर पर पाकिस्तान का नाम लेते हुए कहा कि यहां शांति तब स्थापित नहीं हो सकती, जब तक पाकिस्तान यह गांरटी नहीं देता है कि वह अफगानिस्तान के आतंकी समूहों को किसी भी प्रकार ��ा सहयोग नहीं देगा। उनका कहना है कि पाकिस्तान की इच्छा के बिना तालिबान किसी पर भी सहमति नहीं जतायेगा। अगर सहमति जता भी दी तो युद्ध जारी रहेगा, क्योंकि तालिबान की जगह आईएस-खोरासान ले सकता है और उसके बहुत से नेता इसमें शामिल भी हो चुके हैं।
सकते में आया तालिबान
वहीं अफगान एनएसए ने युद्ध विराम का पासा फैंक कर तालिबान को सकते में डाल दिया है। अभी तक अफगानिस्तान की सबसे बड़ी ताकत होने का दावा करने वाले तालिबान के लिये इस फैसले पर अमल करना बेहद मुश्किल साबित हो रहा है। इससे मौजूदा अफगान सरकार को दुनिया में यह संदेश देने में सफलता मिलेगी कि मौजूदा तालिबान की हैसियत कितनी है और अपने लड़ाकों के बीच उसकी कितनी पैठ है। हालांकि इस बात की प्रबल संभावना है कि तालिबान इस समझौते के शायद ही तैयार हो, क्योंकि सीजफायर को लेकर पहले भी तालिबान में अंदरूनी मतभेद सामने आ चुके हैं।
अभी तक नहीं आया अफगान चुनावों का रिजल्ट
वहीं इससे लगता है कि अमेरिका के दबाव के चलते ही अफगान चुनावों के परिणामों की घोषणा भी नहीं की जा रही है। अफगानिस्तान में चुनाव 28 सितंबर को हुए थे और एक महीने बीत जाने के बाद भी अभी रिजल्ट की घोषणा होनी बाकी है। वहीं परिणामों के अभी और टाले जाने की उम्मीद है, क्योंकि अगले महीने बीजिंग में अफगानिस्तान में शांति प्रक्रिया को लेकर अगली बैठक होगी, जहां अफगान नेताओं के अलावा, विशेष प्रतिनिधि और बड़ी संख्या में तालिबानी नेता हिस्सा लेंगे।
हालांकि एनएसए का कहना है कि उन्होंने चीन से अनुरोध किया था कि परिणामों की घोषणा के बाद ही शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाए।
ट्रंप पर वायदा पूरा करने का दबाव
अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव 2020 में होने हैं और ट्रंप को 2016 में अमेरिकी जनता से किया गया अपना वायदा पूरा करना है, जिसमें उन्होंने सीरिया और अफगानिस्तान से अपनी सेना वापस बुलाने का एलान किया था और पेंटागन सीरिया से इसकी शुरुआत भी कर चुका है। माना जा रहा है कि अमेरिका समझौते पर दस्तखत होने के बाद अगले 135 दिनों में अफगानिस्तान में मौजूद सैनिकों की संख्या घटाकर 8,600 कर सकता है, जिसमें वह कुछ बेसों को भी बंद करेगा।
भारत के लिए दोधारी तलवार
वहीं अफगाननिस्तान में अमेरिकी की नई रणनीति से जहां पाकिस्तान फायदे में है, वहीं भारत के लिए मुश्किलें बढ़ गई हैं। अगर वार्ता बहाली के पश्चात तालिबान को भी सत्ता में आने का मौका मिलता है, तो इससे पाकिस्तान की हैसियत बढ़ेगी और भारत का प्रभाव कम होगा। वहीं अगर वार्ता फेल होती है, तो वहां युद्ध फिर से शुरू होगा और क्षेत्र में अस्थिरता बढ़ेगी और भारत में लिए वहां प्रोजेक्टस पर काम करना मुश्किल हो जाएगा, ऐसे में वहां अमेरिका की मौजूदगी बने रहना जरूरी है।
अगर अमेरिका वहां से पूरी तरह से हटता है, तो वहां की सरकार का हाल नजीबुल्लाह सरकार की तरह हो सकता है। ऐसे में जरूरी है कि अमेरिका वहां की सरकार को सैन्य सहायता उपलब्ध कराती रहे, ताकि कुछ समंय के लिए काबुल सरकार स्थिर रहे और बाकी अफगानी हिस्सों पर किसी दूसरे आतंकी गुट का कब्जा न होने पाए।