झारखंड विधानसभा चुनाव 2019 का चित्र लगभग साफ हो चुका है। भारतीय जनता पार्टी के हाथों से सत्ता जा चुकी है। संभावना यही बन रही है कि अब किसी भी कीमत पर भाजपा की सरकार नहीं बन पाएगी। पूरी ताकत झोंकने के बाद भी भाजपा उस कमाल को नहीं दोहरा पाई जिसके बूते वह सत्ता में आई थी। आखिर वे कौन से कारण हैं, जिसने भाजपा को झारखंड से बेदखल किया है। आइए जानते हैं भाजपा की हार के कारण: -
भाजपा की हार के कारण
जनजातीय समाज की नाराजगी
- भाजपा की हार के सबसे बड़े कारणों में जनजातीय समाज की नाराजगी है। झारखंड का निर्माण ही जनजातीय मुद्दों को लेकर हुआ था। भाजपा ने जनजातीय समाज के लिए कितना काम किया यह मायने नहीं रखता है लेकिन जनजातीय चेहरे के अभाव ने जनजातीय समाज को यह संदेश दिया कि अब प्रदेश में सामान्य लोगों की सत्ता ही बरकरार रहेगी।
बाहरी होना पड़ा भारी
- दूसरी बात रघुवर दास स्थानीय हैं भी नहीं। उनके पिता छत्तीसगढ़ से बिहार में नौकरी करने आए थे, जिस समाज से दास आते हैं उस समाज के प्रति आदिवासियों के मन में पहले से अच्छा भाव नहीं रहा है। भाजपा शायद यह समझने में भूल की और उसका खामियाजा भाजपा को भुगतना पड़ा।
सीएनटी-एसपीटी एक्ट में परिर्वन की कोशिश
- इधर, सीएनटी-एसपीटी एक्ट में परिर्वन की कोशिश भी भाजपा और रघुवर दास के लिए घाटे का सौदा रहा। बता दें कि यह एक्ट जनजातीय समाज के लिए गीता माना जाता है। जनजातीय समाज यह मानकर चलता है कि अगर यह एक्ट नहीं होता तो झारखंड में आदिवासी समाज बचता ही नहीं है।भाजपा के कई आदिवासी नेता इस बात को पहले समझ गए थे। हालांकि रघुवर दास की सरकार ने इस मामले में अपना पैर पीछे कर लिया लेकिन आदिवासी समाज में यह संदेश चला गया कि भाजपा हमारी जमीन को जबरन लेकर कॉरपोरेट को सौंपने जा रही है। इस प्रचार ने भी भाजपा को घाटा पहुंचाया है।
कार्याकर्त्ताओं की नाराजगी
- कार्याकर्त्ताओं की नाराजगी भी हार के लिए जिम्मेदार है। मुख्यमंत्री रघुवर दास के बारे में कार्यकर्त्ता यही कहे सुने जाते रहे कि वे बेहद एरोगेंट हैं। भाजपा के बड़े नेताओं का कार्याकर्त्ताओं से संबंध ठीक नहीं होने कारण भी इस प्रकार परिस्थिति उत्पन्न हुई है।
टिकट बंटवारे में गड़बड़ी
- टिकट बंटवारे में भी भाजपा ने बेहद गड़बड़ी की। जो नेता अपने क्षेत्र में लंबे समय से लगे हुए थे उन्हें टिकट नहीं दे कर वहां से दूसरे को टिकट दे दिया गया। यही नहीं पार्टी के कार्यकर्त्ताओं के स्थान पर बाहर से आए नेताओं को ज्यादा तवज्जो दिया गया। इसके कारण बड़े पैमाने पर भाजपा के कार्यकर्त्ता नाराज थे। इसका खामियाजा भाजपा को भुगतना पड़ा है।
आरएसएस एवं उसके अनुषांगिक संगठनों की नाराजगी
- आरएसएस एवं उसके अनुषांगिक संगठनों की नाराजगी ने भी भाजपा को परेशान किया है। भाजपा की हार के लिए यह भी बड़ी भूमिका निभा गए। यहां तक कि विकास भारती विशुनपुर के सचिव अशोक भगत चुनाव के दिन भी रांची में बैठे थे, जबकि वे कम से कम चार विधाानसभा सीटों के लिए अपनी ताकत लगाते रहे हैं। इस नाराजगी ने भी भाजपा को घाटा पहुंचाया है।
गठबंधन से अलग होकर लड़ा चुनाव
- गठबंधन के साथ आजसू पार्टी और लोक जनशक्ति पार्टी भाजपा से अगल होकर चुनाव लड़ रही थी। आजसू ने भाजपा को कई स्थानों पर पटखनी दी है। भाजपा को कई स्थानों पर बाबूलाल के नेतृत्व वाली झारखंड विकास पार्टी और एनडीए के घटक जनता दल यू के कारण भी भाजपा परेशान हुई है। अगर ये पार्टियां भाजपा के साथ होती तो शायद भाजपा को बुरी तरह नहीं हारना पड़ता।
प्रचार से स्थानीय मुद्दे गायब
- भाजपा जमीनी हकीकत से वाकिफ नहीं हो पाई और लोकसभा चुनाव की तरह चुनाव लड़ी। भाजपा के चुनाव प्रचार में स्थानीय मुद्दे गायब थे। बेरोजगारी, गरीबी, शिक्षा जैसे मुद्दे नहीं थे। फिर भाजपा केवल कहती रही कि हम पिछड़ों को आरक्षण का कोटा बढ़ाएंगे लेकिन अपने घोषणा पत्र में इस बात का जिक्र नहीं किया। इससे भी भाजपा को घाटा हुआ।
नागरिकता संशोधन बिल
- ऐन मौके नरेन्द्र मोदी की नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार ने नागरिकता संशोधन बिल संसद में पास करवा लिया। इसके कारण अल्पसंख्यक खासकर मुसलमान बंट गए और भाजपा हराओ पार्टी को वोट दे दिया। इसके कारण भी भाजपा को घाटा हुआ है। दूसरी ओर भाजपा जिस प्रकार हिन्दुओं को ध्रुवीकरण करने की कोशिश कर रही थी वह नहीं हो पाया। इसके कारण भी भाजपा को घाटा हुआ है।
चुनाव प्रभारी ओम प्रकाश माथुर की छवी
- भाजपा के चुनाव प्रभारी ओम प्रकाश माथुर पर कई प्रकार के आरोप लगे, लेकिन केन्द्रीय नेतृत्व मौन साधे रहा। स्थानीय स्तर पर माथुर के बारे में कई प्रकार की चर्चाएं होती रही हैं। माथुर के दो निजी सहायक छोटे-छोटे कामों में भी स्थानीय कार्यकर्त्ताओं को परेशान करते रहे। इसके कारण भी प्रबंधन के कार्यकर्त्ता नाराज थे और मन से काम में नहीं कर रहे थे।
सरयू राय का टिकट कटने से बिहारी लॉबी नाराज
- सरयू राय वाला प्रकरण भी भाजपा के लिए घाटे का सौदा रहा। राय को टिकट नहीं देने का संदेश भाजपा के खिलाफ गया। राय भले ही अपनी सीट हार जाएं लेकिन उनके समर्थक पूरे प्रदेश में हैं। राय को बिहारी झारखंडी नेता माना जाता है। बिहारी लॉबी ने भी रघुवर दास और पार्टी के इस निर्णय को पचा नहीं पाई और भाजपा को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा।
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