14 जनवरी, 1761. पानीपत की लड़ाई का एक यादगार दिन.
इतिहास कहता है कि पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठाओं के सेनापति सदाशिव राव भाऊ अपनी जान गँवा बैठे थे.
मगर हरियाणा के रोहतक ज़िले के सांघी गांव के लोगों की मानें तो ये बहादुर सेनापति लड़ाई के बाद जीवित थे और उसी गांव में रह रहे थे.
सांघी गांव में मराठाओं के सेनापति सदाशिवराव भाऊ की एक समाधि भी है.
पानीपत की इस लड़ाई से जुड़ी लोकोक्तियों को हम सालों से पढ़ते-सुनते आ रहे हैं. इनमें से एक है- दो मोती गिरे, दस-बीस अशरफ़ी गंवाई, पैसे का तो कोई हिसाब ही नहीं...
इन्हीं दो मोतियों में से एक का नाम सदाशिव राव है जो इस युद्ध के दौरान मारे गए थे. मगर हरियाणा के सांघी गांव के लोग कुछ अलग ही इतिहास बताते हैं.
'भाऊ राव की गद्दी'
पानीपत से कुछ ही दूरी पर है रोहतक ज़िले का सांघी गांव. यहां के लोगों का मानना है कि सदाशिव राव युद्ध के बाद आकर इस गांव में बस गए थे और यहीं पर उन्होंने समाधि ले ली.
रोहतक शहर से 25 किलोमीटर की दूरी पर बसे सांघी गांव में सदाशिव राव भाऊ के नाम से एक आश्रम भी है. इस आश्रम का नाम है 'डेरा लाधीवाला.' इसी डेरे में सदाशिव राव भाऊ या भाऊ राव की 'गद्दी' है.
सांघी गांव के लोगों के मुताबिक़ 1761 में जब मराठा सेना की हार निश्चित मानी जा रही थी, उसी दौरान सदाशिव राव जख़्मी हो गए थे. ज़ख़्मी अवस्था में वे अपने घोड़े पर सवार होकर युद्धभूमि से बाहर निकल गए.
घायल और आधी बेहोशी की हालत में वे उग्राखेड़ी गांव पहुंचे. उसके बाद वे सोनीपत ज़िले के मोई हुड्डा गांव में चले गए.
अगले पड़ाव में रूखी गांव में उन्होंने शरण मांगी. तब रूखी गांववालों ने उन्हें सांघी गांव जाने का सुझाव दिया.
किंवदंती के मुताबिक़, इसका कारण था सांघी गांव की भौगोलिक स्थिति. ये गांव बड़े-बड़े पेड़ों के कारण हरा-भरा था और आसपास घने जंगल होने के कारण यहां छिपकर रहना आसान था. आख़िरकार युद्ध के आठ दिनों बाद 22 जनवरी, 1761 को वो सांघी गांव पहुंचे और यहां के गांववालों ने उन्हें पनाह दे दी.
गांव से बिलकुल सटकर है- 'डेरा लाधीवाला' आश्रम. सांघी गांव भी मुख्य रास्ते से बहुत अंदर की तरफ़ है. घने हरे-भरे पेड़ों के बीच से होते हुए एक रास्ता गांव तक पहुंचता है. गांव में कोई भी व्यक्ति आपको इस आश्रम तक पहुंचा देगा.
गांव से होते हुए एक रास्ता और अंदर की तरफ़ मुड़ जाता है. इसी रास्ते पर खलिहानों से गुज़रते हुए एक कच्ची सड़क आश्रम तक पहुंचती है.
20 एकड़ ज़मीन पर फैला हुआ ये आश्रम उपजाऊ ज़मीन और कई फलदार पेड़ों से घिरा हुआ है. लोगों का मानना है कि इस आश्रम की स्थापना भाऊ राव ने की थी. सांघी गांव के लोगों की मानें तो ये गद्दी सदाशिव राव ने ही स्थापित की थी.
हालांकि इतिहास कुछ और ही बयां करता है.
क्या कहता है इतिहास?
इतिहासकार एसजी सरदेसाई की किताब 'सलेक्शंस फ़्रॉम द पेशवा दफ्तर' के मुताबिक़, "24 फ़रवरी, 1761 को काशीराजजी ने नानासाहेब को चिट्ठी लिखकर विश्वासराव और सदाशिव राव के पार्थिव शरीर के अंतिम संस्कार की बात लिखी."
नानासाहेब को जब ये खत मिला तब वो झांसी के पास पीछोड़ी गांव में पहुंचे थे और इसका ज़िक्र भी इस किताब में है.
पानीपत की आख़िरी लड़ाई का विवरण देते हुए इतिहासकार जॉर्ज रॉविल्सन ने लिखा है, "युद्ध के अंतिम चरण में सदाशिव राव पेशवा अरबी घोड़े पर सवार होकर गिने-चुने सैनिकों के साथ आख़िरी दम तक लड़ते रहे और शहीद हो गए."
इतिहास के जानकार कुछ भी कहें मगर सांघी गांव के लोगों की धारणा तो यही है कि सदाशिव राव भाऊ यहां बसर कर चले गए.
सांघी गांव के राज सिंह हुड्डा कहते हैं, "कई धारावाहिकों में ये दिखाया गया है कि सदाशिव राव भाऊ लड़ाई के दौरान मारे गए थे. लेकिन ये सच नही है. भाऊ ने यहां पर नाथ संप्रदाय की दीक्षा ली और आश्रम भी स्थापित किया."
गांववालों की मानें तो 1761 में ही भाऊराव ने नाथ परिवार की दीक्षा ले ली थी.
आश्रम के महंत सुंदरनाथ बताते हैं, "कुरुक्षेत्र के पेहोवा गांव में श्रवणधाम में उन्होंने गुरु ग़रीबनाथ के मार्गदर्शन पर दीक्षा ली और फिर सांघी गांव लौट आए. 1764 में उन्होंने रोहिला पठानों से लड़ने के लिए गांव के जवानों की फ़ौज तैयार की."
"गांव के बाहर की तरफ़ खंदक खोद���र उन्होंने इन पठानों को धूल चटाई. इस लड़ाई के बाद ही भाऊ ने यहां समाधि ले ली."
लेकिन कई ऐतिसाहिक दस्तावेज़ ये भी कहते हैं कि युद्ध के अगले दिन शुजा ने सैनिकों को शव लेने भेजा मगर उनहें भाऊ का शव नहीं मिला.
मराठा सैनिकों ने शरीर पर लगे जख़्म और कुछ निशानियों से शव की पहचान की. शुजा ने इस शव को अब्दाली के पास भेज दिया. अब्दाली ने इस शव का अंतिम संस्कार करने का हुक्म दिया. तब काशीराज और राजा अनूपगीर गोसावी ने अंतिम संस्कार कराया था.
इतिहासकार काना साने और एसजी सरदेसाई के पास मौजूद ख़त और कुछ दस्तावेज़ों से सदाशिव राव की मौत की कहानी कुछ अलग तरह से सामने आती है.
इस कहानी के अनुसार महँगे जेवरात पहने एक मराठा सरदार घोड़े से जा रहा था. जेवरात के लालच से पठान सरदारों ने मराठा सरदार की पहचान पूछी और जेवर मांगे.
इस बात पर उनमें लड़ाई हुई और मराठा सरदार मारा गया. मराठा सरदार का कटा हुआ सिर शुजा के शामियाने मे जब पहुँचा तो वहां मौजूद मराठा सैनिकों ने पहचाना कि ये सिर भाऊ का है.
उनके शरीर के बाक़ी हिस्से का अंतिम संस्कार हो चुका था, इसलिये सिर का अंतिम संस्कार दूसरे दिन किया गया. ये वाक़या पेशवाओं के दस्तावेज़ों में इसी तरह से बयान किया गया है.
महंत सुंदरनाथ बताते हैं, "हर साल यहां मेला लगता है. कई सारे लोग समाधि के दर्शन करने आते हैं."
सांघी गांव के राज सिंह हुड्डा कहते हैं, "मैं बचपन से वहां जा रहा हूं. उस वक़्त नरहर विष्णु गाडगिल यहां के राज्यपाल थे. तब पंजाब और हरियाणा एक ही राज्य हुआ करते थे. गाडगिल भी यहां अक्सर आया करते थे."
मेले वाले दिन बाबा की समाधि की पूजा होती है और कुश्ती का अखाड़ा लगता है.
इतिहास में कहा जाता है कि इस हार से मराठा राज का उत्तर भारत में असर कम हो गया. मराठा राजवंश की एक पूरी नस्ल और सेनापति सदाशिव राव इस युद्ध में मारे गए.
मगर महाराष्ट्र से हज़ारों मील दूर हरियाणा के इस सांघी गांव में लोगों के दिलों में सदाशिव राव भाऊ अब भी ज़िंदा हैं और उनका उत्सव मनाया जाता है.
उनके लिए वो आज भी गांव के रक्षक बाबा भाऊनाथ महाराज ही हैं. इस उत्सव के माध्यम से सदाशिव राव भाऊ की स्मृति को ज़िंदा रखने का काम सांघी के गांववाले कर रहे हैं.